ISSN: 2277-260X 

International Journal of Higher Education and Research

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जो करना है अभी करना है - डॉ अवनीश सिंह चौहान

pramod-prakharयदि "हिंदी साहित्‍य के हजारों वर्षों के इतिहास में," जैसा कि हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने कहा है, "कबीर जैसा व्‍यक्तित्‍व लेकर कोई लेखक उत्‍पन्‍न नहीं हुआ," तो समकालीन हिन्दी गीत के इतिहास में भी दिनेश सिंह (रायबरेली) जैसा कवि एवं आलोचक विरले ही दिखाई पड़ता है। कबीर के कवित्‍व के प्रति आज का साहित्य समाज गाहे-बगाहे आश्‍वस्‍त दिखाई पड़ता है, किन्तु दिनेश सिंह के साथ यह स्थिति अब तक नहीं बन पायी है। क्या 'समय' रायबरेली के साहित्यकारों की परीक्षा ले रहा है? कहना भले ही मुश्किल हो, किन्तु 'डलमऊ और निराला' पुस्तक में रामनारायण रमण जी ने महाप्राण निराला के बारे में कुछ इसी तरह से लिखा है। लेकिन रमण जी यह भी मानते हैं कि अच्छा रचनाकार अपनी प्रतिभा, अपने सृजन पर भरोसा रखते हुए सदैव आश्वस्त रहता है कि - 'हम न मरिहैं, मरिहै संसारा' (कबीर) और 'मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,/ इसमें कहाँ मृत्यु?/ है जीवन ही जीवन/ अभी पड़ा है आगे सारा यौवन/ स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,/ मेरे ही अविकसित राग से/ विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;/ अभी न होगा मेरा अन्त' (निराला)। कबीर की शैली में निराला का 'अभी' शब्द क्या यहाँ 'कभी' का अर्थ नहीं देता है?
 
यदि ऐसा है तो रायबरेली के रचनाकारों का सम्यक मूल्यांकन 'समय रहते' होना चाहिए। सम्यक मूल्यांकन होने से जहाँ सार्थक और प्रतिभाशाली रचनाकारों की परख हो सकेगी, वहीं पता चल सकेगा कि किस रचना (कृति) को क्या स्थान दिया जाना चाहिए। इसी क्रम में रायबरेली से प्रमोद प्रखर जी की पाण्डुलिपि को पढ़ने का अवसर मिला। शीर्षक है - 'अभी समय है।' अद्भुत शीर्षक, जिसमें चेतावनी का संकेत भी है और मित्रवत सलाह भी। 'समय' एक गतिमान सत्ता है, जिसके तीन रूपों (भूतकाल, वर्तमान और भविष्य) में सर्वाधिक गतिशील वर्तमान ही कहा जा सकता है। शायद इसीलिये इस शीर्षक में प्रयुक्त शब्द - 'अभी' समयरेखा पर एक बिंदु के रूप में वर्तमान की सशक्त उपस्थिति का अहसास कराता है। सन्देश यह कि जो करना है 'अभी' करना है। यानी कि अभी नहीं तो कभी नहीं। इस शीर्षक को देखकर बंगाली कवि हरजिन्दर सिंह लाल्टू याद आ गए:- 
 
अभी समय है
कुछ नहीं मिलता कविता बेचकर
कविता में कुछ कहना पाखंड है
फिर भी करें एक कोशिश और
दुनिया को ज़रा और बेहतर बनाएँ।  
 
लाल्टू की तरह प्रखर जी भी दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश पिछले पैंतीस वर्षों से कर रहे हैं, जिसका प्रमाण उनके द्वारा रचित / सम्पादित लगभग एक दर्जन पुस्तकें हैं। यह कोई आसान काम नहीं, वह भी तब जब रचनाकार साहित्य की कई विधाओं में कार्य कर रहा हो। इन तमाम विधाओं में प्रखर जी की सबसे प्रिय विधा कविता ही रही है। शायद इसीलिये परोपकार की भावना से लैस, स्वभाव से विनम्र और व्यवहार में समभाव रखने वाले प्रखर जी कविता को जीवन का पर्याय मानते हैं:-
 
हमारे गीत 
तुम्हारे मन 
जगह अपनी बना लें तो 
हमें आशीष दे देना। 
 
ये कविता है मेरा जीवन
समर्पित है ये तन-मन-धन 
'प्रखर' जीवन 
जो बन जाये 
हमें आशीष दे देना। 
 
यह विनम्रता प्रखर जी के मन-मस्तिष्क को रूपायित करती है, क्योंकि वह स्वयं मानते हैं कि "जो जितना /विनम्र है उतना/ शक्तिवान भी है।" उनकी इस विनम्रता का राज उनके आध्यात्मिक चिंतन में छुपा है। वह लिखते हैं  "शक्ति मिली कैसे उसको/ वह भक्तिवान भी है।" भक्तिवान कौन?- वह जो भक्ति करता हो। भक्ति? स्वयं के अंतस का परम सत्य से जुड़ जाना। किसलिए? नकारत्मक भावों को नियंत्रित कर अपने व्यक्तित्व का उन्नयन करने के लिए। तर्कवादियों के लिए यह बात अटपटी हो सकती है, क्योंकि अध्यात्म श्रद्धा एवं विश्वास पर अवलंबित होने के कारण 'परम परमारथ' (तुलसीदास) की संस्तुति करता है। रूसी कवि येव्गेनी येव्तुशैंको भी कहते हैं:- 
 
नेकी को तुम रखो याद
मानो इसे प्रभु का प्रसाद
और मित्र-बंधुओं का आशीर्वाद
मैं कहता हूँ
तब काम मैं मन लगेगा
इधर-उधर कहीं नहीं डिगेगा
और जीवन यह अपना तब
निरन्तर सहज गति से चलेगा। (अनुवाद : राजा खुगशाल एवं अनिल जनविजय)
 
यानी कि सहज जीवन जीने के लिए दूसरों का हित करना श्रेयस्कर है। यानी कि कर भला तो हो भला। यदि न भी हो, तब भी कोई परेशानी की बात नहीं। यहाँ एक बात और भी जरूरी है- चिंतामुक्त होना। कैसे? सम्यक दृष्टि से। प्रखर जी इसे कुछ इस तरह से कहते हैं:-
 
एक वर्ष जीवन का 
और हुआ कम 
काहे की खुशी भला 
काहे का गम 
 
जो था नया कभी 
अब हो गया पुराना 
वर्तमान भूत हुआ 
जिसे नहीं आना 
 
भविष्य तो भविष्य है 
बोलो बम-बम। 
 
यह 'बम-बम' चिंतामुक्त आनन्दमय जीवन जीने की कला सिखाता है और संकेत करता है कि परिस्थितियां कैसी भी हों, घबड़ाना नहीं चाहिए- "प्रश्न कठिन हो चाहे जितना/ होकर सहज करोगे हल तो/ उत्तर निश्चित मिल जायेगा।" इसी को रमाकांत जी कुछ इस तरह से कहते हैं- "जीवन को जीना है/ अपने तरीके से/ जिसको जो कहना है/ कहता रहे वो/ आयेंगी बाधाएं/ उनसे घबराना क्या/ जिसको चलना है तो चलता रहे वो/ जो मंजिल भाये/ वो मंजिल चुन लो।" 
 
आधुनिक जीवन के विविध आयामों को प्रस्तुत करती इस कृति का अपना सौन्दर्य है, अपनी विशिष्टता है। यह सौंदर्य, यह विशिष्टता किसे कितना आकर्षित या विकर्षित करेगी, इसे समय पर ही छोड़ देना उपयुक्त होगा, क्योंकि 'अभी समय है।' कृतिकार को कोटि-कोटि बधाई देते हुए शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी के शब्दों में बस इतना ही कहना चाहूंगा- "मेरा सत्य/ बता दो जाकर/ हर आँगन से, हर चौखट से।"    
 
कृति : अभी समय है (नवगीत)
कवि : प्रमोद प्रखर
प्रकाशक : एकलव्य पब्लिकेशन, रायबरेली, उ.प्र. 
94 55 540892, 7860966625
मूल्य : रु 150/-
वर्ष : 2016
 
- डॉ अवनीश सिंह चौहान 
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